vikram samvat 2082: आज से नवरात्रि की शुरुआत के साथ ही विक्रम संवत 2082 की शुरुआत भी हो रही है, जिसे हिंदू नववर्ष के रूप में मनाया जाता है। यह संवत सटीक काल गणना के प्रतीक के तौर पर जाना जाता है और इसे प्राचीन भारतीय कैलेंडर के सबसे वैज्ञानिक रूप में माना जाता है। विक्रम संवत की शुरुआत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होती है, जो आज से शुरू हो रही है। यह संवत न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि इसके वैज्ञानिक और ऐतिहासिक पहलू भी अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।
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विक्रम संवत का वैज्ञानिक दृष्टिकोण- vikram samvat 2082
विक्रम संवत का निर्माण प्राचीन भारत के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री आचार्य वाराह मिहिर ने किया था। उन्होंने पृथ्वी की सूर्य के चारों ओर घूमने की गति और दिन-रात के समय का सटीक गणना किया। इसके आधार पर विक्रम संवत की तिथियों को निर्धारित किया गया। विक्रम संवत में महीने को चंद्रमास के रूप में विभाजित किया गया है, जबकि वर्ष को सौर वर्ष के आधार पर निर्धारित किया गया है। इसमें प्रत्येक महीने की सटीकता और ऋतुओं का तालमेल इतना अच्छा है कि इसे सबसे सटीक कैलेंडर माना जाता है।
विक्रम संवत के बारे में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान प्रोफेसर पांडुरंग वामन काणे ने अपनी पुस्तक ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में इसे सबसे वैज्ञानिक बताया है। उनका कहना था कि पश्चिमी कैलेंडर में सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण और अन्य खगोलीय घटनाओं की कोई पूर्व जानकारी नहीं होती, जबकि विक्रम संवत के माध्यम से इन घटनाओं की सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है। विक्रम संवत में ऋतुओं और ग्रहों की स्थिति को भी सही तरीके से दर्शाया गया है।
विक्रम संवत की शुरुआत: राजा विक्रमादित्य की भूमिका
विक्रम संवत का नाम राजा विक्रमादित्य से जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, विक्रमादित्य ने शकों और हूणों को हराकर विक्रम संवत की शुरुआत की थी। विक्रमादित्य के समय में खगोलशास्त्र और काल गणना में अत्यधिक विकास हुआ था। यह संवत सबसे पहले राजा विक्रमादित्य ने ही लागू किया, और उनके द्वारा स्थापित किया गया यह कैलेंडर आज भी प्राचीन भारतीय संस्कृति का हिस्सा है।
राजा विक्रमादित्य की उपाधि ‘विक्रम’ और ‘आदित्य’ से मिलकर बनी, जो उनके पिता महेंद्रादित्य से जुड़ी हुई थी। विक्रमादित्य के दरबार में महान खगोलशास्त्री वराह मिहिर ने विक्रम संवत की गणना की, जो आज भी प्रचलित है। विक्रमादित्य को ‘शकारि’ की उपाधि भी दी गई, जिसका अर्थ था ‘शकों का शत्रु’, क्योंकि उन्होंने शकों को हराया था और उनके अत्याचारों का अंत किया था।
विक्रम संवत का ऐतिहासिक महत्व
विक्रम संवत का इतिहास बेहद पुराना है और इसके प्रमाण कई प्राचीन शिलालेखों में मिलते हैं। उदाहरण के लिए, विजयगढ़ के एक स्तंभ पर विक्रम संवत 428 वर्ष का उल्लेख मिलता है, और तक्षशिला के ताम्रपत्र पर विक्रम संवत की तारीखें अंकित हैं। इन शिलालेखों से यह सिद्ध होता है कि विक्रम संवत का इतिहास ईसा पूर्व से जुड़ा हुआ है।
विक्रम संवत का प्रचलन नेपाल में आज भी है, जबकि भारत में शक संवत को आधिकारिक रूप से अपनाया गया है। विक्रम संवत की गणना का तरीका इतना सटीक और वैज्ञानिक है कि यह आज भी भारतीय त्यौहारों और मुहूर्तों की गणना में उपयोग किया जाता है।
विक्रम संवत के प्रमुख सिद्धांत
विक्रम संवत का आधार सूर्य और चंद्रमा की गति पर आधारित है। इसमें 12 मास होते हैं, जिनमें से प्रत्येक मास का निर्माण चंद्रमास के आधार पर किया गया है। विक्रम संवत के अनुसार, प्रत्येक माह में 30 या 31 दिन होते हैं, और हर तीसरे वर्ष में एक अतिरिक्त मास, जिसे अधिक मास कहा जाता है, जो सूर्य वर्ष को समायोजित करता है। यह प्रणाली मौसम और तिथियों के तालमेल को सुनिश्चित करती है।
इसके अतिरिक्त, विक्रम संवत का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह खगोलीय घटनाओं जैसे ग्रहणों का सटीक समय बताने में सक्षम है। यह कैलेंडर न केवल हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय खगोलशास्त्र के उत्कृष्टता का प्रतीक भी है।
विक्रम संवत की सटीकता और इसकी ऐतिहासिकता पर कोई संदेह नहीं है। यह भारतीय खगोलशास्त्र और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। विक्रम संवत न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यधिक सटीक और उपयोगी है।