महाराष्ट्र की राजनीति में काफी लंबे समय से खींचातानी चल रही है. एकनाथ शिंदे
के सीएम बनने के बाद से लेकर चुनाव आयोग द्वारा पार्टी के सिंबल को लेकर दिए गए
फैसले तक, उद्धव ठाकरे नीत शिवसेना केवल ‘गुर्रा’ रही है. यह पूर्णरूप से विदित हो गया है कि स्थिति ‘ढाक के तीन पात समान ही रहेगी’! अब आप भी सोच रहे होंगे
कि हम ऐसा क्यों कह रहे हैं? दरअसल, इसके पीछे की
कहानी बड़ी ही दिलचस्प है.
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उद्धव की ‘हताशा’
इन दिनों उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र में काफी सक्रिय नजर आ रहे हैं. उनकी तमाम
रैलियां हो रही हैं और उनकी ओर से कई तरह के बयान भी दिए जा रहे हैं. शिंदे नीत
शिवसेना यानी बागी धड़े को पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह आवंटित करने को लेकर उन्होंने कहा है कि चुनाव आयोग, केंद्र की सत्ता में बैठे लोगों का ‘गुलाम‘ बन चुका है. चुनाव आयोग अब चूना लगाव आयोग बन चुका है लेकिन मैं अपने पिता
स्वर्गीय बाल ठाकरे द्वारा स्थापित पार्टी को उनको कभी छीनने नहीं दूंगा.
उद्धव ठाकरे ने कहा कि यह बाल ठाकरे ही थे, जो भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े थे, जब वह राजनीतिक रूप से “अछूत” थी. अगर उन लोगों में दम है तो वह लोग महाराष्ट्र में केवल नरेंद्र
मोदी के नाम पर वोट मांग लें. बिना बाला साहेब
ठाकरे के ही उन लोगों को चुनाव में जाने की चुनौती देता हूं. आपने (चुनाव आयोग) हमसे पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह छीन लिया है लेकिन आप शिवसेना
को मुझसे नहीं छीन सकते.
कैसे उद्धव के हाथ से फिसलती चली गई शिवसेना?
अब आइए पूरी कहानी समझते हैं. ध्यान देने
योग्य है कि बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना की कमान उनके बाद उद्धव ठाकरे ने संभाली
और लंबे समय तक पार्टी की विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम करते रहे. लेकिन वर्ष
2019 में उद्धव ठाकरे ने अपनी विचारधारा को तिलांजलि देते हुए अपनी चीर
प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली. उद्धव सीएम
बन गए और उसके बाद सरकार की ओर से तमाम ऐसे फैसले लिए गए, जिससे शिवसेना के कार्यकर्ता
तक पसंद नहीं कर रहे थे.
स्थिति ऐसी ही चलती रही लेकिन बर्दाश्त की भी एक सीमा होती है. शिवसेना के
अंदरखाने ही पार्टी नेतृत्व और उनकी ‘नयी-नयी
विचारधारा’ के खिलाफ नेताओं में
सहमति बनने लगी थी और एक दिन ऐसा आया कि ठाकरे परिवार को ताक पर रखते हुए, एक समय
पर उद्धव ठाकरे के राइड हैंड कहे जाने वाले एकनाथ शिंदे ने शिवसेना पर अपना दावा
ठोक दिया.
शिंदे को शिवसेना के कार्यकर्ताओं का जमकर समर्थन मिला क्योंकि एक तरह से कहा
जा सकता है कि कांग्रेस और एनसीपी से मिलकर अपने विचारधारा का सौदा करने वाले
उद्धव ठाकरे के बाद एकनाथ शिंदे ने ही ‘शिवसेना’ में बाला साहेब ठाकरे की विचारधारा को पुनर्जीवित किया. उसी का परिणाम रहा कि
तमाम नेता और कार्यकर्ता शिंदे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए. आपको जानकर
आश्चर्य होगा कि शिवसेना के 30 से अधिक विधायक और 12 सांसदों ने शिंदे का समर्थन
किया और उसके बाद उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर राज्य में सरकार बना ली.
मामला बढ़ता गया और चुनाव आयोग ने उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले
गुटों के बीच खींचतान देखते हुए शिवसेना के नाम और चिन्ह के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी. उसके बाद से दोनों गुट अपने आप को ‘असली’ शिवसेना बताने में जुट
गए. कुछ समय बाद चुनाव आयोग ने उद्धव
ठाकरे गुट को चुनाव चिन्ह के रूप में मशाल का निशान एवं ‘शिवसेना- उद्धव
बालासाहेब ठाकरे‘ नाम
आवंटित किया। इसके साथ ही निर्वाचन आयोग ने शिंदे गुट को ‘बालासाहेबची
शिवसेना‘ आवंटित
किया. लेकिन लड़ाई यही पर नहीं रुकी.
कुछ ही समय बाद दोनों ही गुटों ने ‘शिवसेना’ नाम और तीर-कमान
चुनाव चिन्ह पर फिर से दावा करना शुरू कर दिया. उसके बाद आयोग ने थोड़ा समय लिया
और 78 पन्नों के अपने आदेश में बीते 18 फरवरी को सारी चीजें क्लीयर कर दी. आयोग ने
शिवसेना नाम और तीर-कमान चुनाव चिन्ह पर शिंदे गुट के दावे को स्वीकार कर लिया,
जिससे यह भी स्पष्ट हो गया कि अब शिंदे गुट ही असली शिवसेना होगी. साथ ही उद्धव
कैंप को शिवसेना-बालासाहेब ठाकरे नाम और मशाल को चुनाव चिन्ह के रूप में रखने को
कहा, जो उन्हें अक्टूबर 2022 में दिया गया था. हालांकि, अब इस मामले को लेकर उद्धव
ठाकरे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं लेकिन हर भाषण में उनकी हताशा झलकती नजर आ रही है.