Liquor Ban Bihar Politics: बिहार की राजनीति में शराबबंदी एक महत्वपूर्ण और विवादित मुद्दा बनकर उभरा है, खासकर 2016 के बाद से जब नीतीश कुमार की नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार ने प्रदेश में पूर्ण शराबबंदी लागू की थी। इस फैसले को लेकर राज्य में हमेशा बहस रही है, और अब जब बिहार विधानसभा चुनाव करीब हैं, यह मुद्दा फिर से प्रमुखता से सामने आया है। विपक्षी दलों ने शराबबंदी को विफल बताते हुए इसे समाप्त करने की मांग की है, जबकि कुछ नेताओं ने इसके गुजरात मॉडल को लागू करने की बात की है। बिहार के चुनावी माहौल में शराबबंदी पर सियासत और नीतीश कुमार की राजनीति का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण हो जाता है।
शराबबंदी का ऐतिहासिक फैसला- Liquor Ban Bihar Politics
2016 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू करने का ऐलान किया था। इस फैसले का उद्देश्य बिहार में शराब से संबंधित सामाजिक समस्याओं को खत्म करना था, लेकिन इसके साथ ही इस फैसले ने राजनीति में भी तूफान मचाया। राज्य में इस निर्णय के बाद कई बार सहयोगी दलों और विपक्षी पार्टियों द्वारा इसे हटाने की मांग की गई, लेकिन नीतीश कुमार ने अपने फैसले पर अडिग रहते हुए इसे लागू रखा। इसके बावजूद, नीतीश कुमार ने शराबबंदी पर कुछ ढील दी थी, लेकिन राजनीतिक और चुनावी दृष्टिकोण से यह मुद्दा अब भी गर्माया हुआ है।
महिला वोटबैंक: नीतीश की रणनीति
नीतीश कुमार के शराबबंदी पर अडिग रहने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण महिला वोटबैंक की ताकत है। बिहार की कुल 13 करोड़ की आबादी में महिलाओं की संख्या 6 करोड़ से ज्यादा है और शराबबंदी की शुरुआत भी महिलाओं की मांग पर ही हुई थी। 2016 में जब शराबबंदी का निर्णय लिया गया, तो महिलाओं ने इसे व्यापक समर्थन दिया। महिलाओं का यह वोटबैंक नीतीश कुमार के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया, क्योंकि महिला मतदाताओं की संख्या पिछले कुछ सालों में बढ़ी है, और उनका मतदान उत्साह भी पुरुषों के मुकाबले अधिक देखा गया है।
2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार में महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत 59.45 था, जो पुरुषों के मुकाबले 6.45 फीसदी अधिक था। यह आंकड़ा बताता है कि महिला मतदाता नीतीश कुमार के लिए कितने अहम हैं। शराबबंदी के कारण बिहार में महिलाओं को सुरक्षा और शांति का एहसास हुआ है, और इसका असर आगामी विधानसभा चुनाव पर पड़ सकता है।
हिंसा में कमी: शराबबंदी का सामाजिक प्रभाव
शराबबंदी के बाद बिहार में हिंसा की घटनाओं में भी काफी कमी आई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, घरेलू हिंसा के मामलों में 21 लाख तक की गिरावट आई है। यौन हिंसा और भावनात्मक हिंसा के मामलों में भी कमी आई है। शराब पीने से जुड़ी हिंसा के मामलों में यह गिरावट सीधे तौर पर महिला सुरक्षा से जुड़ी है, और नीतीश कुमार के लिए यह एक बड़ा सियासी मुद्दा बन गया है। शराबबंदी से बिहार में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर नीतीश कुमार की छवि मजबूत हुई है।
शांति, सौहार्द और स्वास्थ्य में सुधार
मेडिकल क्षेत्र की प्रतिष्ठित पत्रिका लैंसेट ने 2024 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें शराबबंदी के सकारात्मक प्रभावों का उल्लेख किया गया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि शराबबंदी से बिहार में सार्वजनिक स्थानों पर शराब पीने से जुड़ी घटनाएं लगभग शून्य हो गई हैं, जिससे शांति और सौहार्द का वातावरण बना है। इसके अलावा, स्वास्थ्य में भी सुधार देखा गया है। शराबबंदी के बाद बिहार में लोगों के भोजन पर खर्च में भी वृद्धि हुई है, और यह आंकड़ा 1005 रुपये से बढ़कर 1331 रुपये तक पहुंच गया है, जिससे यह संकेत मिलता है कि लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा है।
नीतीश कुमार की प्रतिष्ठा पर असर
नीतीश कुमार के लिए शराबबंदी का फैसला व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से भी जुड़ा हुआ है। जब राज्य के सहयोगी दल और विपक्षी पार्टियां शराबबंदी की आलोचना करती हैं, तो यह नीतीश कुमार के लिए चुनौती बन जाती है। उनके लिए यह निर्णय सिर्फ एक सरकार का निर्णय नहीं, बल्कि उनके नेतृत्व और कार्यशैली का हिस्सा बन गया है। अगर नीतीश कुमार इस फैसले से पीछे हटते हैं, तो यह उनकी राजनीतिक छवि को नुकसान पहुंचा सकता है और उनकी छवि ‘सुशासन बाबू’ की तर्ज पर कमजोर हो सकती है।
विपक्षी दलों का विरोध
हालांकि, नीतीश कुमार के फैसले पर विरोध भी बढ़ा है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के वरिष्ठ नेता आरके सिंह ने शराबबंदी को विफल बताते हुए इसे तुरंत खत्म करने की मांग की है। वहीं, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने शराबबंदी के गुजरात मॉडल को लागू करने की बात कही है। इसके अलावा, चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर ने भी सत्ता में आने पर शराबबंदी खत्म करने का वादा किया है। इन विरोधी बयानों से यह संकेत मिलता है कि शराबबंदी को लेकर बिहार में चुनावी राजनीति गर्माने वाली है।