गोरखा रेजिमेंट का इतिहास
1947 में अंग्रेज़ो से आजादी मिलने के बाद भारत, नेपाल और ब्रिटेन के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ जिसमें तत्कालीन 10 गोरखा रेजीमेंट ईस्ट इंडिया कंपनी के पास थी जिसमें से 6 गोरखा रेजिमेंट्स ने भारतीय सेना को चुना और बाकी 4 ने ब्रिटिश।
भारतीय सेना में बहादुरी और मौत को भी अपने सहस और निडरता से डरा देने की बात हो तो सबसे पहला नाम गोरखा रेजीमेंट का आता है अपने शौर्य और पराक्रम से दुश्मनों का मनोबल और उनके परखच्चे उड़ा देने वाले गोरखा रेजीमेंट की शौर्यगाथा आज पूरी दुनिया में गायी जाती है। चौकाने वाली बात ये है की भर्ती तो इनकी भारतीय सेना में होती है लेकिन इस रेजिमेंट में दो तिहाई (2/3) सैनिक नेपाल के होते हैं, और एक तिहाई सैनिक (1/3) भारतीय होते हैं जिनकी भर्ती हर साल गोरखा और गोरखपुर रेजीमेंट डिपो (GRD) द्वारा होती है और नेपाल में इनकी भर्ती के लिए रैली का आयोजन होता है जिसमें सैनिकों का रिटेन और फिजिकल टेस्ट लिया जाता है और उसी के आधार पर उनका सिलेक्शन किया जाता है।
भारत सरकार ने जब “अग्निपथ योजना” के अंतर्गत 17 वर्ष से 21 वर्ष के युवाओं का 4 साल के लिए सेना में भर्ती का आयोजन किया तबसरकार ने मानों सेना भर्ती की तैयारी कर रहे युवाओं को फांसी की सजा सुना दी हो। इस योजना के तहत सैनिकों को 4 साल के लिए सेना में भर्ती किया जाएगा और उनकी 4 साल की परफॉरमेंस के आधार पर उन्हें परमानेंट किया जायेगा। इस योजना के लागू होने के बाद देश में जमकर इसका विरोध हुआ विपक्षों ने भी जमकर हमला बोला था लेकिन इन सबको नजरअंदाज करते हुए देश की तीनों दाल की सेनाओं ने भर्ती प्रक्रिया को शुरू कर दिया।
नेपाल ने क्यों रोकी “अग्निपथ योजना”
भारत सरकार द्वारा इस योजना के Announcement के बाद नेपाल में में 25 अगस्त से भारतीय शुरू होनी थी अलग-अलग शहरों में रैलियां निकलनी थी जिसपर नेपाल सरकार ने रोक लगा दी थी एक रिपोर्ट की माने तो नेपाल के मौजूदा Foreign Minister नारायण खड़का ने भारतीय एम्बेसडर नवीन श्रीवास्तव को इस बात से मुख्तलिफ कराया था की अग्निपथ योजना के अंतर्गत भर्ती 1947 में भारत,नेपाल और UK के बीच हुए समझौते के अनुरूप नहीं है और इसलिए हम देश की बाकी पार्टियों से सलाह-मशवरा लेकर ही कोई अंतिम निर्णय दे सकते हैं। उनकी चिंता का विषय था 4 साल बाद रिटायर होने के बाद गोरखाओं का होगा और इस से समाज पर भी गलत असर पड़ेगा। आपको ये जानकर ताज्जुब होगा की वर्तमान में नेपाल के 30 हज़ार सैनिक भारतीय सेना में अपनी सेवा दे रहे हैं और भारत के लिए खड़े हैं, वहीँ करीब 1 लाख से ऊपर सेना से रिटायर होकर पेंशन का लाभ उठा रहे हैं ऐसे में Unemployment और आर्थिक तंगी से जूझ रहे नेपाल के लिए ये उनके पेट पर लात मरने जैसा काम होगा।
अग्निपथ योजना के तहत 4 साल बाद लगभग 75 फीसदी लोगों सेना से निकाल दिया जायेगा और उनकी पेंशन भी रोक दी जाएगी, ऐसे में नेपाल सरकार का मानना है की रिटायरमेंट के बाद ये देश में चल रही कई साड़ी ILLEGAL ORGANISATION का सकते हैं और देश में ही खतरनाक हमलों को अंजाम दे सकते हैं, कुछ राजनैतिक पार्टयों का ये भी कहना है कि देश के सैनिक किसी और देश के लिए क्यों लड़ें ?
भारतीय और नेपाली गोरखाओं की भर्ती प्रक्रिया
1947 के समझौते के बाद फिलहाल भारत में 7 गोरखा रेजिमेंट्स हैं ये सात रेजीमेंट मिलकर कुल 43 बटालियन बनाते हैं ,और इन्हीं में गोरखाओं की भर्ती होती है, गोरखाओं की भर्ती के लिए 2 गोरखा रिक्रुटमेंट डिपॉट्स (GRD) का गठन किया है जिसमे से एक पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में है और दूसरा उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में है। इन 43 बटालियन में भर्ती किया गए गोरखा सैनिक भारत और नेपाल दोनों देशो से होते हैं जिसमे भारत के गोरखा उत्तराखंड,पश्चिम बंगाल ,असम, मेघालय और हिमाचल के होते हैं जिनकी भर्ती ARO (आर्मी रिक्रूटमेंट ऑफिस) द्वारा की जाती है।
नेपाल से गोरखा भर्ती लिए सबसे पहले भारत, नेपाल और ब्रिटेन साथ मिलकर रैली के लिए एक तारीख फिक्स करते हैं और उसी तारीख पर भर्ती के लिए APPLY करने वाले जवानों का रिटेन और फिजिकल टेस्ट लिया जाता है और टेस्ट पास करने वाले जवानों को इन तीनों देश की सेना में भर्ती किया है।
कौन होते हैं गोरखा
गोरखा नेपाल की पहाड़ी जाति “लड़ाका” से सम्बन्ध रखते हैं, ये अपनी ईमानदारी और बहादुरी के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं इनकी भौतिक और मानसिक मजबूती ही इनको सेना की ओर खींच लाती है यही वजह थी की 1857 की क्रांति से पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सेना में गोरखा की भर्ती पर जोर दिया। गोरखा अपने 16 से 18 इंच लंबे चाकूनुमा धारदार हथियार की वजह से जाने जाते हैं जिसे नेपाल की आम भाषा में ‘खुकरी’ के नाम से कहा जाता है।
1814 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अपनी पकड़ मजबूत बना चुकी थी और अब वो नेपाल में अपनी पकड़ बनाने के लिए सीमा पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहे थे लेकिन इस बात का अंदाजा गोरखाओं को हो चुका था और उन्होंने बिना देर किए अंग्रेज़ों पर अपने हथियारों से हमला बोल दिया जिसमे अंग्रेज़ो को अपने मुँह की खानी पड़ी और वो अपने ही बनाये जाल में फंस गए। पैसे और ताकत में ब्रिटिश का कोई मुकाबला नहीं था ऐसे में गोरखाओं का भी ज्यादा दिन टिके रहना भी अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा हो रहा था।
मजबूरन 1815 में अंग्रेज़ो और नेपाल के राजा के बीच एक संधि हुई जिसे सुगौली संधि के नाम से जाना जाता है संधि के मुताबिक नेपाल की सीमा से जुड़े कुछ हिस्से भारत में जोड़ दिया जाये, इस समझौते में नेपाल का मिथिला क्षेत्र भारत में शामिल हो गया और काठमांडू में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि की नियुक्ति हुई और साथ ही ये भी तय हुआ कि ब्रिटेन की सैन्य सेवाओं में गोरखाओं की भर्ती की जाएगी। 1857 की क्रांति में गोरखा भारतीय क्रांतिकारियों के खिलाफ लड़े थे जिसमे उनके शौर्य को देख कर अंग्रेजों ने इन्हें नया नाम दे डाला- मार्शल रेस (Martial Race).
क्या है गोरखा सोल्जर पैक्ट और क्यों इसे 1947 में करार दिया गया ?
1947 में जब भारत के आजाद होने के बाद अंग्रेज़ अपना बोरिया- बिस्तर बांधकर वापस जा रहे थे तो उस वक्त उनके पास एक और बेशकीमती चीज थी और वो थी सेना की सबसे बहादुर 10 गोरखा रेजीमेंट ऐसे में अब सवाल ये था की ये रेजीमेंट भी इन्हीं के साथ जाएंगी या नहीं। इसके फैसले के लिए ही अंग्रेज़ और भारत के बीच एक समझौता हुआ जिसे “गोरखा सोल्जर पैक्ट -1947 “का नाम दिया। जिसमे यह तय हुआ की गोरखा कहाँ रहंगे ये उन्ही पर ही छोड़ दिया जिसमे से 6 गोरखा रेजिमेंट्स ने भारत को चुना और बाकी अंग्रेज़ों के साथ चले गए। इस पैक्ट के अंतर्गत ये तय हुआ की दोनों देश की सेनाओं में गोरखा के साथ किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं होगा और उन्हें भी बाकी जवानों की तरह हर क्षेत्र में बराबर मौके दिए जायेंगे और सेना में उनकी भर्ती बतौर नेपाली नागरिक ही होगी और साथ ही साथ उनकी धार्मिक भावनाओं का भी समान खयाल रखा जायेगा।
आजादी के पश्चात गोरखा रेजिमेंट को कई देशों से निमंत्रण मिले लेकिन उन्होंने भारत के लिए अपना रुख स्पष्ट कर दिया था और उनके निमंत्रण को ठुकरा दिया। आपको हमारी जानकारी कैसी लगी हमे कमेंट करके जरूर बताएं