गाय का बछड़ा दूध पीता है, गोमूत्र नहीं पीता क्योंकि उसे पता है कि मूत्र पीने वाली प्रजाति पहले से ही इस धरती पर मौजूद है- ये शब्द हैं ईवी रामस्वामी पेरियार के, जिन्होंने ब्राह्मणवाद पर ऐसा करारा प्रहार किया था कि आज भी उनके नाम से ही मनुवादी चिढ़ जाते हैं. पेरियार के तर्क ने पाखंडियों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था. 1925 में पेरियार ने ही तमिलनाडु में जातिगत भेदभाव पर प्रहार करते हुए आत्म सम्मान आंदोलन की शुरूआत की थी, जिसे दलित वर्ग का जमकर समर्थन मिला. इसी आंदोलन के बाद 1928 में पहला आत्मसम्मान विवाह हुआ था. जो लंबे समय से चर्चा में बना हुआ है…आखिर क्य़ा है आत्मसम्मान विवाह…इसके पीछे पेरियार के तर्क क्या था…ये लंबे समय से चर्चा क्यों बना हुआ है। आईए आपको बताते हैं क्या है पूरा मामला।
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क्या है आत्म-सम्मान विवाह?
दरअसल, आत्मसम्मान विवाह या सुयमरियाथाई, विवाह का एक ऐसा तरीका है, जिसमें न तो किसी पुजारी को बुलाना पड़ता है, न ही आडंबरों में फंसना पड़ता है और न ही बहुत ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ते हैं. इस विवाह में किसी भी धर्म या जाति के लोग एक दूसरे को अपना जीवनसाथी चुन सकते हैं. इस शादी को कानूनी मान्यता भी मिलती है. पेरियार के समय से शुरू हुआ विवाह का यह तरीका आज भी प्रासंगिक नहीं हुआ है. काफी बड़ी संख्या में लोग आत्मसम्मान विवाह के जरिए अपना घर बसा रहे हैं.
ऐसे हुई आत्म-सम्मान विवाह की शुरुआत
समय समय पर आत्मसम्मान विवाह पर सवाल भी उठे, जिसके बाद तमिलनाडु सरकार ने 1968 में, सुयमरियाथाई विवाह को लीगल बनाने के लिए कानून के प्रावधानों में संशोधन किया था. तमिलनाडु सरकार ने 1968 में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (संशोधित) को विधानसभा में पारित किया था. इस अधिनियम में धारा 7A जोड़ा गया, जो आत्मसम्मान विवाह को वैधता प्रदान करती है.
इसका मकसद विवाह प्रक्रिया को सरल बनाना था. इसके अलावा ब्राह्मण पुजारियों, पवित्र अग्नि और सप्तपदी (सात फेरे) की अनिवार्यता को खत्म करना था. यह संशोधन विवाह कराने के लिए ऊंची जाति के पुजारियों और विस्तृत रीति-रिवाजों की आवश्यकता को दूर करने के लिए किया गया था. हालांकि, इन विवाहों को भी कानून के मुताबिक रजिस्ट्रेशन कराने की दरकार थी.
सुप्रीम कोर्ट ने बदला मद्रास हाईकोर्ट का फैसला
अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक कैसे पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने आत्मसम्मा विवाह को लेकर सारी चीजें कैसे क्लीयर कर दी..चलिए समझते हैं…दरअसल, तमिलनाडु में एक कपल ने आत्मसम्मान विवाह पद्धति से शादी रचाई. पति का नाम इलावरसन था. मई 2013 में शादी को कानूनी मान्यता भी मिल गई. लेकिन पत्नी को उसके माता पिता ने अवैध हिरासत में रखा था. इसके बाद कोर्ट कचहरी शुरू हुआ और मामला मद्रास हाईकोर्ट तक पहुंचा. मद्रास हाईकोर्ट ने अधिवक्ताओं द्वारा की गई शादी को वैध मानने से इनकार कर दिया. ऐसे में इलावरसन की शादी और आत्मसम्मान विवाह प्रमाण पत्र भी अवैध हो गया. हाईकोर्ट की ओर से कहा गया कि बार काउंसिल को ऐसे फर्जी विवाह प्रमाण-पत्र जारी करने वाले अधिवक्ताओं के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करनी चाहिए.
उसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. इसी मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के 2014 के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि अधिवक्ताओं द्वारा कराई गई शादी वैध नहीं मानी जाएगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर सुनवाई करते हुए 29 अगस्त को अपना फैसला सुनाया.
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि तमिलनाडु में संशोधित हिंदू विवाह कानून के तहत वकील परस्पर सहमति से 2 वयस्कों के बीच आत्मसम्मान विवाह करा सकते हैं. कोर्ट ने कहा कि वकील अदालत के अधिकारियों के रूप में शादी नहीं करा सकते हैं. बल्कि वह व्यक्तिगत रूप से दंपति को जानने के आधार पर कानून की धारा 7A के तहत शादी करा सकते हैं. इस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने इस विवाह को वैध घोषित कर दिया था.
आपको बता दें कि यह नियम कानून सिर्फ और सिर्फ तमिलनाडु के लिए है. तमिलनाडु से बाहर यह वैध नहीं माना जाएगा. ये विवाह रिश्तेदारों, दोस्तों या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में संपन्न होते हैं. दोनों पक्ष एक-दूसरे को उनकी समझ में आने वाली भाषा में पति या पत्नी घोषित करते हैं. विवाह में मंगल सूत्र,माला या अंगूठी पहनाते हैं.