भारत का संविधान आर्टिकल 15…ये वो भाग है संविधान का जो बराबरी का अधिकार देता है। हमें ये आर्टिकल एक ही तरह से और एक ही जगह से अपनी बात को रखने का राइट देता है। वैसे इसके बाकी के जो क्लॉज है उनको अपवाद के तौर पर देख सकते हैं, लेकिन इन अपवादों को भी असमानता को खत्म करने के लिए बनाए गए हैं। चलिए कुछ सावलों के जवाब तलाशते हैं इस आर्टिकल 15 से जुड़े।
संविधान का आर्टिकल 15 क्या कहता है?
ये आर्टिकल भारत के नागरिकों के साथ समानता की बात करता है। इसके तहत कहा गया है कि हम सब भारतीय एक समान है। ऐसे में किसी भी आधार पर भेद कानूनन गलत है।
इस धारा में क्या क्या कहा गया है?
सरकार या राज्य; किसी भी नागरिक के अगेंट्स केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान के बेस पर कोई विभेद नहीं करेगा। किसी को भी धर्म, जाति, मूलवंश, जन्म और लिंग के बेस पर दुकानों, सार्वजानिक भोजनालयों, होटल, public entertainment venues, कुओं, तालाबों, स्नान घाटों यहां तक कि सड़कों पर घुसने से रोका नहीं सकते हैं।
सवाल ये है कि क्या विशेष अधिकारों के मिल जाने से किसी तरह का चेंज आया?
तो कुछ हद तक बदलाव तो आए पर ज़मीनी हकीकत देखें तो साफ तौर पर कह पाना बहुत मुश्किल है कि सामाज में समानता आई है, क्योंकि भेदभाव को दिखाने वाली कई घटनाएं जो बीते समय में घटी हैं जैसे कि 16 अगस्त, 2016 गुजरात में हुआ ये कि प्रदर्शन में हिस्सा लेकर ऊना की तरफ लौट रहे दलितों पर हमले हुए।
31 जनवरी 2017 में दलितों पर हरियाणा के मिर्चपुर गांव में हमला किया गया था, जिसमें 9 घायल हुए और 40 परिवार गांव छोड़कर गए। और ना जाने कितनी ही घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जो कि दलितों के साथ होने वाले भेदभाव को दिखाती है।
इन भेदभाव पर सरकार और सुप्रीम कोर्ट क्या कहता और करता है?
सरकारें हर बार बदलती हैं, लेकिन दलितों पर अत्याचार के आंकड़ों में कमी नहीं होती। जमीनी हकीकत देखें तो आजादी के इतने दशक बीतने के बाद भी ये कहना गलत नहीं होगा कि सामाजिक और आर्थिक बराबरी वाले मामले में दलित आज भी पिछड़ा है। संविधान में सामाजिक बराबरी के लिए आर्टिकल 15 तो है पर जमीन पर कितना उतरा है ये आर्टिकल ये तो अलग बहस है।