इस वक्त पूरे देश में द कश्मीर फाइल्स फिल्म बहस का एक बड़ा मुद्दा बनी हुई है। इस पर राजनीति भी जमकर की जा रही है। फिल्म को लेकर हर किसी अपने अलग-अलग तर्क दे रहा हैं। कश्मीरी पंडितों के साथ 3 दशक पहले जो कुछ भी हुआ, उसके लिए कई लोग कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा रहे है, तो कुछ का ये भी कहना है कि जब घाटी में पंडितों पर अत्याचार हो रहे थे, जब केंद्र में जो सरकार थी उसे बीजेपी का समर्थन हासिल था। लेकिन उसने कुछ नहीं किया। BJP पर अब अपने राजनीतिक लाभ के लिए कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचारों का सहारा लेने के आरोप लगाए जा रहे हैं। फिल्म को लेकर कई लोगों का ये भी कहना है कि इसमें “अधूरा सच” दिखाया गया है। कहा ये भी जा रहा है कि फिल्म के जरिए एक प्रोपगैंडा चलाने की कोशिश हुई। इसमें ऐसी कई चीजें दिखाई गई जो बीजेपी के पक्ष में जाती हैं।
फिल्म को लेकर दिए जा रहे अलग अलग तर्कों के बीच कुछ फैक्ट्स जानना जरूरी हो जाता है। आखिर कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा का असली गुनहगार कौन था? आज हम ऐसे ही कुछ सवालों पर गौर करेंगे और इनके जवाब जानने की कोशिश करेंगे…
किसकी सरकार तब देश में थी?
इसके लिए ये जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर कश्मीर में पंडितों पर अत्याचार की शुरूआत कब हुई। वैसे तो कश्मीरी में पंडितों के पलायन की शुरुआत साल 1987 से हुई थी। हालांकि 1989 आते आते कश्मीर में टारगेट किलिंग शुरू हो गई। गैर मुस्लिमों को निशाना बनाया जाने लगा। 14 सितंबर 1989 से यहां बुरे दौर की आया। लिस्ट बनाकर कश्मीरी पंडितों की हत्या होने लगी। अखबारों में इश्तिहार छपे और पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए कहा जाने लगा। 1989 के उस दौर में वीपी सिंह देश चला रहे थे। उनकी सरकार सत्ता में थी। वहीं सरकार, जिसको बीजेपी का भी समर्थन हासिल था। तब जम्मू कश्मीर के गवर्नर थे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल कोटिकलपुदी वेंकट कृष्णराव। यही वजह है कि एक तबका सवाल पूछ रहा है कि अब कश्मीरी पंडितों के साथ हमदर्दी दिखा रही बीजेपी ने तब उनके लिए आवाज क्यों नहीं उठाई।
गवर्नर ने क्या किया था?
द कश्मीर फाइल्स के आने के बाद एक नाम काफी सुर्खियों में आ रहा है। वो है जगमोहन मल्होत्रा का। 19 जनवरी 1990 की वो काली रात जब कश्मीर से बड़ी संख्या से पंडितों का पलायन हुआ, तो घाटी में गर्वनर रूल था और दूसरी बार जम्मू कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन को बनाया गया था। यही वजह है कि कुछ लोग कश्मीरी पंडितों के पलायन का जिम्मेदार जगमोहन को ही मान रहे हैं। लेकिन क्या वो सच में जिम्मेदार थे, ये जान लेते हैं…
ये बात सही है कि जब घाटी से 19 जनवरी 1990 को बड़ी संख्या में पलायन की शुरुआत हुई, तो जगमोहन ने चार्ज संभाल रखा था। लेकिन ये पूरा सच नहीं है। दरअसल, 19 जनवरी 1990 को जब मस्जिदों से कश्मीरी पंडितों से घाटी छोड़ने को कहा गया, उनके घर जलाए जाने लगे, कत्लेआम शुरू हुआ तो उससे कुछ घंटे पहले ही जगमोहन राज्यपाल बनाए गए थे। इससे ठीक 10 घंटे पहले तक फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। 18 जनवरी को फारूक ने इस्तीफा दिया और वो तुरंत ही लंदन चले गए। 19 जनवरी को जब तक जगमोहन ने कमान संभाली, तब तक कश्मीर के हालात काफी खराब हो चुके थे।
जगमोहन ने जनवरी 2011 में इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा था, जिसमें कहा कि कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने पलायन रोकने की बहुत कोशिश की। 7 मार्च 1990 को राज्यपाल ने कश्मीरी पंडितों से अपील भी की थी कि वो घाटी छोड़कर ना जाएं। हालांकि कांग्रेस के एक सीनियर लीडर सैफुद्दीन सोज अपनी किताब Kashmir: Glimpses of History and the Story of Struggle में जगमोहन की बातों का खंडन करते हैं। वो पलायन के पीछे जगमोहन को ही जिम्मेदार मानते हैं। अपनी किताब में उन्होंने लिखा कि पलायन की वजह जगमोहन रहे। वो पलायन को बेहतर मानते थे और इसके पीछे उनके तर्क थे। इससे कश्मीरी पंडित खुद को सुरक्षित महसूस कर पाएंगे और उनकी हत्याएं भी रूक सकेगी।