Bhaisuri Reservation problem: उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के कापकोट ब्लॉक में स्थित एक छोटा सा गांव है भैसुरी कुटेर। यह गांव आज भी विकास की मुख्यधारा से पूरी तरह से जुड़ नहीं पाया है, और यहां के लोग आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। इस गांव में अनुसूचित जाति (SC) के लोगों की 86 प्रतिशत से अधिक आबादी है, जो आरक्षण के तहत सरकारी नौकरियों में प्रवेश पाने का हकदार है। लेकिन इसके बावजूद, यह गांव सरकारी नौकरी की दौड़ में हमेशा मीलों पीछे रहा है।
और पढ़ें: Film Phule Boycott: फुले फिल्म पर बायकॉट का बवंडर! क्या जातिवाद के खिलाफ आवाज़ दबाई जा रही है?
यह गांव उन गांवों की कहानी बयान करता है जहां लोग आरक्षण का फायदा मिलने के बावजूद भी सरकारी नौकरी हासिल करने में असफल रहते हैं। भैसुरी कुटेर के निवासी पिछले कई दशकों से आरक्षण के तहत सरकारी नौकरी की उम्मीद लगाए बैठे हैं, लेकिन वे अब तक इस सपने को पूरा करने में असमर्थ हैं।
गांव की स्थिति- Bhaisuri Reservation problem
गांव में रहने वाले लोग हर रोज कठिनाईयों का सामना करते हुए मेहनत करते हैं, लेकिन सरकारी नौकरी का कोई अवसर उनके सामने नहीं आता। गोविंद कुमार, जो इस गांव के एक निवासी हैं, बताते हैं कि उन्होंने कई बार सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया, लेकिन उन्हें कभी भी सफलता नहीं मिली। उनका कहना है, “हमारे गांव में आज तक किसी भी एससी जाति के व्यक्ति को सरकारी नौकरी नहीं मिली है। हम आरक्षण का लाभ उठाने के बावजूद सरकारी सिस्टम में फिट नहीं बैठ पाए।”
इसी तरह, गोपाल राम का कहना है कि उन्होंने भी सरकारी नौकरी के लिए प्रयास किए, लेकिन कहीं भी सफलता नहीं मिली। उनका कहना है, “मैंने हर जगह सरकारी नौकरी के लिए इंक्वायरी की, पैसा खर्च किया, लेकिन कहीं से भी कोई नौकरी नहीं मिली।”
स्कूलों का हाल: शिक्षा का हकदार नहीं मिल पा रहा है
गांव का प्राथमिक विद्यालय भी सरकारी तंत्र की असफलता की कहानी बयान करता है। स्कूल के छात्रों को रोजाना 500 मीटर की चढ़ाई चढ़कर स्कूल पहुंचना पड़ता है, लेकिन इसके बावजूद भी स्कूल की हालत ज्यों की त्यों है। मिड डे मील मिलने के बावजूद, स्कूल से बेहतर रिजल्ट कभी प्राप्त नहीं हो पाया। शिक्षा का स्तर बहुत कम है, और सरकारी तंत्र की लापरवाही के कारण बच्चे बेहतर शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं।
दीवान राम का परिवार, जो एक एससी समुदाय का हिस्सा है, ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाया, लेकिन सरकारी नौकरी के लिए कोई रास्ता नहीं मिला। उनके बच्चों को भी आरक्षण मिलने के बावजूद, वे सरकारी नौकरी पाने में सफल नहीं हो पाए। दीवान राम का कहना है, “मेरे बच्चे अब प्राइवेट नौकरी कर रहे हैं, लेकिन सरकारी नौकरी के लिए कोई मौका नहीं मिला।”
आरक्षण की असली सच्चाई
यह कहानी उस बहस को उजागर करती है जो आरक्षण को लेकर देशभर में होती रहती है। जहां एक ओर संसद और न्यूज रूम में यह बहस छिड़ी रहती है कि आरक्षण में क्रीमी लेयर कौन हो, क्या इसका फायदा सही लोगों तक पहुंच रहा है, वहीं दूसरी ओर, कुछ गांव ऐसे भी हैं जहां लोग आरक्षण का फायदा उठाने के बावजूद आज भी सरकारी नौकरियों से वंचित हैं। इन गांवों के लोग गरीबी, बेरोजगारी और असमानता के खिलाफ संघर्ष करते हुए अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य देने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सरकारी सिस्टम और अन्य बाधाओं की वजह से उनका सपना अधूरा ही रह जाता है।
आरक्षण की सच्ची आवश्यकता
यह गांव, और इसके जैसे कई गांव, यह दिखाते हैं कि देश में आरक्षण का सही लाभ उन लोगों तक नहीं पहुंच रहा है जिनके लिए यह बनाया गया था। सरकार को यह समझने की आवश्यकता है कि आरक्षण के छोटे-मोटे फायदे तो मिल रहे हैं, लेकिन यह समुदाय आज भी सरकारी तंत्र से बाहर है। इन लोगों को न केवल आरक्षण की आवश्यकता है, बल्कि एक ऐसे सक्षम और सशक्त सरकारी तंत्र की जरूरत है जो इन तक पहुंच सके और उन्हें उनके हक का अवसर दे सके।
उत्तराखंड और देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले ऐसे समुदायों की जरूरत को समझते हुए, यह महत्वपूर्ण है कि सरकारी तंत्र में सुधार किया जाए और इस समुदाय को उचित अवसर मिल सके। बिना सही अवसर के, आरक्षण केवल कागजों तक ही सीमित रह जाएगा, और इन लोगों का जीवन कभी भी सुधार नहीं पाएगा।