फिल्म “विद्या” – जाति को चुनौती देने वाली आजाद भारत की पहली फिल्म

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Vidya 1948 film: आज़ादी के बाद के भारत में सिनेमा समाज में बदलाव लाने का एक अहम ज़रिया बनकर उभरा। 1948 में रिलीज़ हुई फ़िल्म विद्या ने जातिवाद के मुद्दे पर खुलकर बात की और इसे चुनौती देने का एक साहसिक कदम उठाया। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा में सामाजिक अन्याय और भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाली पहली फ़िल्मों में से एक थी। इसे आज भी एक क्रांतिकारी फ़िल्म माना जाता है, जिसने न सिर्फ़ फ़िल्म जगत में बल्कि समाज में भी गहरा असर छोड़ा।

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फिल्म का परिचय और कथानक- Vidya 1948 film

“विद्या” का निर्देशन 1948 में गिरीश त्रिवेदी ने किया था, फिल्म में देव आनन्द, सुरैया, मदन पुरी, कुक्कू और माया बैनर्जी ने अभिनय किया था। फिल्म की कहानी कुछ यूं है: चमारों (मोची) के एक निम्न जाति के परिवार में जन्मे चंदू उर्फ ​​चंद्रशेखर (देव आनंद) अपने पिता के जूते और अन्य फुटवियर की मरम्मत में थोड़े से पैसे खर्च करके मदद करते हैं। एक दिन एक अमीर और धनी परिवार की लड़की विद्या (सुरैया) अपने जूते की मरम्मत करवाने के लिए आती है। वह चाहती है कि चंदू यह घटिया काम करना छोड़ दे और स्कूल जाए, पढ़ाई करे और कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति बने। वह आर्थिक मदद करती है और चंदू को स्कूल भेजती है। दोनों बड़े होते हैं और एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। दोनों शादी करना चाहते हैं, लेकिन हैरी उर्फ ​​हरिलाल (मदन पुरी) और विद्या के शराबी पिता के रूप में बाधाएं सामने आती हैं, जो अपनी बेटी को निचली जाति के लड़के के साथ घुलने-मिलने की अनुमति नहीं देते।

सामाजिक प्रभाव

विद्या ने अपने समय के समाज में नई बहस और चर्चा को जन्म दिया। इस फिल्म को स्वतंत्र भारत में जातिवाद के खिलाफ सिनेमा के माध्यम से किया गया पहला प्रयास माना जाता है। इसके संदेश ने कई दर्शकों को प्रेरित किया और समाज में शिक्षा और समानता की आवश्यकता के बारे में एक नई सोच को प्रोत्साहित किया। इस फिल्म ने शिक्षा के माध्यम से समाज में बदलाव लाने के लिए प्रेरित किया और इस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित किया कि जाति और वर्ग भेदभाव शिक्षा और समान अवसरों के रास्ते में बाधा नहीं बनना चाहिए।

फिल्म के रिलीज के समय भारत में जातिवाद एक गहरी समस्या थी, जो आजादी के बाद भी समाज के हर स्तर पर मौजूद थी। इस फिल्म के माध्यम से निर्देशक गिरीश त्रिवेदी ने एक महत्वपूर्ण संदेश दिया कि अगर समाज में समानता और न्याय लाना है, तो जातिवाद को समाप्त करना होगा। इस फिल्म ने दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर किया कि जाति आधारित भेदभाव कैसे किसी के जीवन और अवसरों को प्रभावित करता है और इसे बदलने के लिए शिक्षा कितना महत्वपूर्ण है।

सिनेमा में क्रांति का आरंभ

“विद्या” भारतीय सिनेमा (Indian dalit film) की उन पहली फिल्मों में से एक थी जिसने समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई थी। इसके बाद फिल्म इंडस्ट्री के दूसरे निर्देशकों ने भी सामाजिक मुद्दों को उठाते हुए कई फिल्में बनाईं, जिससे सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने का एक नया चलन शुरू हुआ। यह फिल्म उस समय के लिए बहुत क्रांतिकारी थी, जब ज्यादातर फिल्में मनोरंजन और पारंपरिक कहानियों पर आधारित होती थीं। “विद्या” जैसी फिल्म ने सिनेमा को समाज में बदलाव लाने का माध्यम बनाया और इसके बाद भारतीय सिनेमा में सामाजिक सुधार की दिशा में कई प्रयास किए गए।

विद्या (Film based on dalit community) सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं थी, बल्कि समाज सुधार का एक माध्यम थी। इसने भारतीय सिनेमा में एक नई सोच को जन्म दिया और दर्शकों को जातिवाद जैसी बुराइयों के खिलाफ़ सोचने पर मजबूर किया। इस फ़िल्म का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना तब था और यह फ़िल्म हमें याद दिलाती है कि सिनेमा के ज़रिए समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिश की जा सकती है। “विद्या” का महत्व सिर्फ़ अपने समय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह फ़िल्म आज भी जातिवाद और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर जागरूकता फैलाने का प्रतीक बनी हुई है।

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