एक बार बाबा साहब अंबेडकर ने जातिवाद और छुआछूत से तंग आकर कहा था कि वो भले ही हिंदू धर्म में पैदा हुए हो, लेकिन वो हिंदू बनकर मरेंगे नहीं और उन्होंने वहीं किया। अपनी मौत से कुछ महीने पहले बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। यानि कि वो भले ही हिंदू पैदा हुए लेकिन मरते वक्त वो एक बौद्ध थे, लेकिन अब सबसे बड़ा सवाल है कि भारत में कई धर्मों को मानने वाले लोग हैं, जिसमें इस्लाम हिंदू धर्म के बाद सबसे प्रचलित है, यहां तक कि हैदराबाद के निजाम ने बाबा साहब पर कई बार दवाब डाला था कि वो इस्लाम धर्म को अपना लें, लेकिन फिर भी बाबा साहब ने इस्लाम धर्म को अपनाने के बजाए बौद्ध धर्म क्यों अपनाया? उन्होंने इस्लाम धर्म क्यों नहीं अपनाया? आज हम इसी सवाल का जवाब जानेंगे…
अपनी मौत से करीब एक साल पहले ही बाबा साहब को ये एहसास हो गया था कि वो शायद अब ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहेंगे। इसलिए उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का फैसला किया। उन्होंने सभी धर्मो पर शोध शुरू किया। इसी बीच हैदराबाद के निजाम चाहते थे कि बाबा साहब इस्लाम धर्म अपना लें, इसके लिए बाबा साहब से कई बार निजाम ने बात भी की थी, लेकिन तब भी बाबा साहब ने इस्लाम नहीं अपनाया। बाबा साहब ने इस्लाम का अध्ययन करने के बाद पाया कि इस्लाम में भी हिंदू धर्म की तरह ऊंच नीच का भेदभाव है। इस्लाम में कभी भी दलितों को बराबरी का हक नहीं मिलेगा। जातिवाद और दलितों की स्थिति दोनों ही धर्मों में एक जैसी ही है।
बाबा साहब इस्लाम में काफी समय से चल रही कुरितियों को बिलकुल पसंद नहीं करते थे। इस्लाम में भी बड़े अमीर और ऊंची जातियों वाले लोगों की ही चलती है, यहां भी दलितों की हालात बदतर है।
दलितों की जो भी दुर्दशा है उसमें दास प्रथा का अहम रोल है, और इस्लाम दास प्रथा को बढ़ावा देता है। इस्लाम में दास प्रथा को खत्म करने को लेकर कोई कमिटमेंट नहीं है। इस्लाम में ऊंचे लोग बिल्कुल हिंदू ब्राह्मणों की तरह ही सोचते है। इस्लाम धर्म में राजनीति बिल्कुल हिंदू धर्म की तरह ही फूट की राजनीति होती है। इसके अलावा इस्लाम में महिलाओं की दशा बेहद खराब थी। इसमें बहु विवाह ही कुप्रथा सबसे ज्यादा महिलाओं को तकलीफ होती है। इन प्रथाओं के कारण उनका शोषण और दमन होता है।
अंबेडकर मानते थे कि इस्लाम में दलितों की कोई जगह ही नहीं है क्योंकि दलितों को इस्लाम में अपनाया ही नहीं जाएगा। उन्हें बराबरी का हक नहीं दिया जाएगा। साथ ही इस्लाम में कुरीतियों को दूर करने के विचारक ही नजर नहीं आते है। न ही वो पुरानी रूढ़िवादी सोच से बाहर आना चाहते है। और बिना इन कुरीतियो को खत्म किए बिना समानता नहीं मिल सकेगी।
इन सभी विचारों को ध्यान में रख कर ही बाबा साहब को बौद्ध धर्म ही एक ऐसा धर्म हैं, जिसमें उन्हें समानता नजर आई थी। और इसलिए उन्होंने इस्लाम के बजाए बौद्ध धर्म अपना लिया था।