
जिस वक्त गांधी जी लोगों को आजादी के लिए इकट्ठा करने में लगे थे। तब भारत में अस्पृश्यता यानी छुआछूत अपने चरम पर था। कथित तौर पर निम्न जाति के लोगों से सवर्ण जाति के लोग मनमाना काम कराते थे और उनके साथ काफी बर्बर तरीके से पेश आते थे। बापू भेदभाव की इन बातों को सही मानते ही नहीं थे।
वो तो ये कहते थे कि जब ईश्वर ने उनको बनाने में किसी तरह का भेद नहीं किया तो जाति के आधार पर उनको अलग कैसे किया जा सकता है? जाति को आधार बनाकर भले व्यक्ति को कैसे नीचा और एक बुरे व्यक्ति को अच्छा माना जाए?
गांधी ने कहा कि हर इंसान उसी ईश्वर की रचना है, लेकिन काफी कोशिशों के बाद भी जो धारणा है छुआछूत की वो लोगों के मन से तो मिट ही नहीं रही। दूसरी तरफ उन्होंने ये पक्के तौर पर तय किया कि सबके मन से इस धारणा को वे निकालेंगे तभी दम लें पाएंगे । सबके मन से वे इस धारणा को निकाल देंगे कि जाति से कोई बड़ा या फिर छोटा नहीं होता। व्यक्ति तो अपने काम से बड़ा और महान होता है।
गांधी जी ने एक दफा सोचा कि लोग निम्न यानी छोटी जाति वालों से नफरत इस वजह से करते हैं, क्योंकि काम वो मैला ढोने और पाखाना साफ करने का करते हैं। दूसरी तरफ कोई वजह भी नहीं कि यह काम बस उनके लिए ही छोड़ दिया जाए। उन्हीं दिनों कुछ ऐसा हुआ कि मैला ढोने का काम जो शख्स सेवाग्राम में करता था वो काम छोड़कर चला गया था।
इस हालात को गांधी जी ने अवसर के तौर पर लिया। गांधी जी ने सोचा कि इस धारणा को निकालने का अच्छा मौका है। उन्होंने आश्रम में सबको बुलाया और कहा ‘आप सभी को मालूम है कि मैला ढोनेवाला व्यक्ति नहीं है। आइए, हम सब मिल-जुलकर यह सफाई का काम करते हैं।’ फिर सबके सामने ही उन्होंने पाखाने साफ कर दिया। छोटे-से छोटे काम से घृणा न करने की जो भावना थी उसको लोग समझ गए और समझ गए थे कि कोई भी अछूत नहीं होता।
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