आज से एक सदी पहले तक गुरुद्वारों के धन पर भ्रष्ट महंतों का नियंत्रण था…वे गुरुद्वारे की संपत्ति को अपनी निजी संपत्ति के तौर पर यूज करते. इतना ही नहीं इन भ्रष्ट महंतों ने गुरुद्वारों के जमीन को अपनी निजी संपत्ति के रूप में बदलना शुरु कर दिया था, जो पूरी तरह से सिख गुरुओं और श्री गुरुग्रंथ साहिब जी के आदेशों की अवहेलना थी…गुरुद्वारे पर नियंत्रण कर चुके ये महंत धीरे धीरे विलासिता की ओर बढ़ते गए और कई तरह की सामाजिक बुराइयों में लिप्त हो गए.
अब सिखों के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने गुरुद्वारों को बचाने की थी. इसीलिए महंतों के विरोध में और अपने गुरुद्वारों के मुक्त कराने के लिए काफी बड़े स्तर पर सिखों ने एक आंदोलन शुरु किया, जिसे इतिहास में गुरुद्वारा सुधार आंदोलन या अकाली आंदोलन के नाम से जाना जाता है. इस लेख में हम आपको गुरुद्वार सुधार आंदोलन से जुड़ी हर एक बात के बारे में बताएंगे, जिसके कारण गुरुद्वारों का नियंत्रण SGPC के पास आया था.
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कैसे शुरु हुआ यह संघर्ष
1920 में अकाली आंदोलन की शुरुआत हुई. काफी बड़ी संख्या में सिख उदासी महंतों के विरोध में उतर गए. हर ओर इन महंतों का विरोध होने लगा और आंदोलनकारी सिख उनकी सच्चाई दुनिया को बताने लगे. सरकार ने 1921 में अकालियों के अहिंसक आंदोलन के खिलाफ दमनकारी नीतियां भी अपनाई लेकिन उसे सिखों की मांगों के झुकना पड़ा था. 1922 में पहली बार सिख गुरुद्वारा अधिनियम पारित किया गया. 1925 में इसे संशोधित किया गया और देश के सभी गुरुद्वारों के देखरेख का जिम्मा SGPC यानी शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के हाथों में आ गया लेकिन यह इतना भी आसान नहीं था.
दरअसल, गुरु गोविंद सिंह जी के बाद सिख उत्पीड़न के दौरान, सिख गुरुद्वारों का नियंत्रण उदासियों या उन लोगों के पास चला गया, जो सिख धर्म को मानते थे, लेकिन इसके बाहरी प्रतीकों का सख्ती से पालन नहीं करते थे और इस तरह उत्पीड़न से बच गए. उस समय विभिन्न गुरुद्वारों के प्रभारी,उदासियों ने गुरुद्वारों को खुला रखकर सिख धर्म को बहुमूल्य सेवा प्रदान की. उसके बाद सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में गुरुद्वारों को काफी ज्यादा कर मुक्त जमीनें दी गईं और यहीं से शुरु हो गया कुचक्र का खेल.
उदासी सिख पुजारियों की मनमानियां महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के समय से ही सामने आने लगी थी. दूसरी ओर देश के कई हिस्सों पर अंग्रेजों की पकड़ मजबूत हो चुकी थी..महाराजा के जीते जी अंग्रेज पंजाब की ओर आंख उठाकर देखने से बचते रहे लेकिन सिख साम्राज्य के पतन के बाद अंग्रेजों ने स्वर्ण मंदिर, अकाल तख्त, बाबा अताई के साथ-साथ तरनतारन साहिब सहित कई गुरुद्वारों पर कब्ज़ा कर लिया था. प्रशासनिक और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए अंग्रेजों ने गुरुद्वारों पर कब्जा जमाया था. वहीं, 260 गुरुद्वारों का नियंत्रण उदासी महंतों के पास ही रहा. हालात तो तब बिगड़ गए जब स्वर्ण मंदिर के उदासी महंत ने जालियांवाला बाग नरसंहार के कसाई जनरल डायर को सरोपा प्रदान किया.
कौन थे पहले अध्यक्ष और उपाध्यक्ष
इसके बाद चिंगारी भड़क उठी और उदासियों के प्रति सिखों का धैर्य जवाब दे गया. अकाली आंदोलन की स्थापना सिख सुधारकों ने अपने धार्मिक स्थलों में धीरे-धीरे घुस आई बुरी सामाजिक प्रथाओं को हटाकर उन्हें शुद्ध करने के लिए की थी. जनरल डायर को उदासियों द्वारा सम्मान दिए जाने के बाद आंदोलन ने उग्र रुप ले लिया. अहिंसक आंदोलन मार्च, दीवान या धार्मिक बैठकें, और सिखों द्वारा अपने पूजा स्थल को नियंत्रित करने की स्वतंत्रता व्यक्त करने के लिए किए गए विरोध प्रदर्शनों को, विशेष रूप से ग्रामीण लोगों से उत्साहपूर्ण समर्थन मिला.
अहिंसक तरीकों से, उन्होंने स्वर्ण मंदिर, अकाल तख्त और कुछ अन्य गुरुद्वारों पर नियंत्रण कर लिया. वे गुरुद्वारों के संचालन की निगरानी के लिए एक केंद्रीकृत धार्मिक संगठन बनाने पर भी सहमत हुए. गुरुद्वारों के प्रशासन के लिए अकाल तख्त में एक सम्मेलन आयोजित किया गया और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) के नाम से एक संगठन का गठन किया गया. 12 दिसंबर, 1920 को संगठन की पहली बैठक के दौरा, सुंदर सिंह मजीठिया और हरबंस सिंह अटारी को क्रमशः अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुना गया.
हालांकि, अगल बगल के कई रियासतों के राजाओं ने अकालियों का समर्थन किया. नाभा के महाराजा रिपुदमन सिंह को अकालियों के समर्थन के कारण उनके पद से हटा दिया गया. इसके बाद अकालियों ने रिपुदमन सिंह का मुद्दा उठाने और सिंहासन पर उनकी बहाली की मांग करने का फैसला किया.
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अंग्रेजों ने मजबूरी में लिया था फैसला
अकाली पंजाब प्रांत में एक शक्तिशाली राष्ट्रवादी अभिव्यक्ति के रूप में उभरे थे, इसलिए कांग्रेस ने उनका समर्थन करने का फैसला किया. यहां तक कि जवाहरलाल नेहरु भी नाभा के दौरे पर पहुंच गए. वहां नेहरु को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. अकालियों को नाभा के प्रशासन और पटियाला के महाराज से सबसे तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा. इसी बीच फरवरी 1924 में जैतो में शहीदी जत्थे को लेकर लड़ाई हो गई. दूसरी ओर अंग्रेजों को इस बात की भी चिंता थी कि पंजाब के किसानों के बीच कांग्रेस की विचारधारा न फैले क्योंकि इसका सीधा असर ब्रिटिश सेना में सिख सैनिकों पर पड़ता. इन सभी कड़ियों ने अंग्रेजों को गुरुद्वारा विधेयक,1925 पारित करने पर मजबूर कर दिया.
इसके तहत सिख समुदाय को गुरुद्वारों के प्रबंधन का कानूनी अधिकार दिया गया, जिससे गुरुद्वारों पर महंतों का वंशानुगत नियंत्रण पूरी तरह से समाप्त हो गया. इसने गुरुद्वारा प्रशासन पर लोकतांत्रिक नियंत्रण स्थापित किया. इस अधिनियम के तहत कोई भी सिख, जाति की परवाह किए बिना SGPC के अध्यक्ष सहित किसी भी पद पर चुना जा सकता है. सिख महिलाओं को पुरुषों के समान ही वोट का अधिकार दिया गया. साथ ही उन्हें सिख तीर्थस्थलों में धार्मिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन करने की अनुमति दी गई.
अंत में हम आपको यही बताना चाहते हैं कि गुरुद्वारा सुधार आंदोलन के अपने पांच साल (1920-25) के संघर्ष के दौरान, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति और अकाली दल न केवल महंतों को हटाने में सक्षम रहा, बल्कि शांतिपूर्ण आंदोलन के माध्यम से सभी महत्वपूर्ण गुरुद्वारों पर नियंत्रण हासिल करने में भी सफल रहा. इस आंदोलन के जरिए सिख समुदायों में महंतों, सरकार द्वारा नियुक्त प्रबंधकों और अन्य निहित स्वार्थियों को बाहर करके पंजाब में राष्ट्रवाद की ताकतों को मजबूत किया गया.