वीर पुत्रों की वीरगाथा
गुरु गोबिंद सिंह जी के दो पुत्रों बाबा जोरावर सिंह जी (7 वर्ष) और बाबा फतेह सिंह जी (7 वर्ष) को मुस्लिम बनने पर मजबूर किया जा रहा था, दोनों को मौत और मुस्लिम धर्म में से एक चुनने को कहा गया। दोनों ने धर्म परिवर्तन करने से इनकार कर दिया और इसलिए वजीर खान ने उन्हें मौत की सजा सुनाई। उन्हें जिंदा ईंटों से ठोक दिया गया था।
बात उस वक़्त की है जब उम्र का लिहाज करके सम्मान दिया जाता था उसमे बचपन भी शामिल था और बुढ़ापा भी. बात उन दो वीर युवाओं की है जिन्होंने इतनी छोटी सी उम्र में अपने देश और अपने धर्म को दो कौड़ी के मुगलों के सामने झुकने नहीं दिया। उनकी गलती बस इतनी थी की उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन करने से मना कर दिया यानि कि मुसलमान बनने से मना कर दिया जिसकी वजह से उन्हें ऐसी सजा दी गयी की आप सोंच भी नहीं सकते। वहीं आज की बात करें तो लोग थोड़े से पैसों के लालच में, थोड़ी सी जमीन के लालच में अपना ईमान बेच बैठते हैं। फिर भले ही वो 10 साल के बच्चे हों या 60-70 साल के बूढ़े बुजुर्ग। इन दोनों धर्मनिष्ठ वीर पुत्रों की कहानी/वीरगाथा आप अपने बच्चों को जरूर सुनाएं और समाज को अच्छा बनाने की कोशिश करें।
कहां बिछड़ा गुरु गोविन्द सिंह जी का पूरा परिवार ?
सिख धर्म के दसवें गुरु गुरु गोविन्द सिंह जी के चार पुत्र थे अजीत सिंह, जुझारू सिंह, फ़तेह सिंह और जोरावर सिंह। जिसमे से इनके दो सबसे बड़े पुत्र अजीत सिंह और जुझारू सिंह चमकौर युद्ध में शहीद हो गए। बात उस वक़्त की है जब मुगलों ने अचानक आनंदपुर में हमला बोल दिया था जिसकी वजह से गुरु गोविन्द सिंह जी को आनंदपुर छोड़ना पड़ा। गुरु गोबिंद सिंह जी जब सभी सिखों के साथ सरसा नदी पार कर रहे थे तब नदी में तेज बहाव के चलते इनका परिवार इनसे बिछड़ गया। जहाँ इनके पुत्र फ़तेह सिंह और जोरावर सिंह अपनी दादी गुजरी के साथ जंगल की ओर चले गए और अजीत सिंह, जुझारू सिंह और स्वयं गुरु गोविन्द सिंह जी अलग दिशा में।
अपने परिवार से अलग होने के बाद पहाड़ों और नदियों को पार करके गुजरी जी पास के एक नगर में पहुंची जहाँ उनकी मुलाकात गुरु गोविन्द सिंह जी के 20 साल पुराने रसोइये से हुई जो की एक ब्राह्मण था। उनसे मिलने बाद वह उनको अपने साथ अपने घर चलने के लिए विनती करने लगा। जिसे गुजरी देवी मना नहीं कर पाई और दोनों बच्चों के साथ उसके घर चली गई। माता गुजरी देवी की लगभग सारी चीज़ों पर सोने की मुहरें लगी गई थी और जब गंगू की नज़र उसपर गयी तो उसके मन में लालच आ गया और रात में सोते वक़्त उसने वो सारी सोने की मुहरें चुरा ली। लेकिन बात यहीं नहीं रुकी गंगू का लालच अब और बढ़ गया और उसने ईनाम पाने के चक्कर में पास के मुंजरी थाने के कोतवाल को ये खबर दे दी की गुरु गोविन्द सिंह के दोनों बेटे और उनकी माँ उसके घर में छुपे हैं।
माता गुजरी और दोनों पुत्र गिरफ्तार हो गए
छिपने की खबर मिलने के बाद कोतवाल ने अपने सिपाहियों को भेज उन्हें बंदी बनाकर ले गए। जहाँ उन्हें मोरिन्डा की जेल में रखा गया। जहाँ माता गुजरी ने गुरु गोविन्द की वीरता पूर्ण कहानियां सुनाई और अपने निर्णय पर अडिग रहने का ज्ञान दोनों साहिबज़ादों को दिया। दोनों साहिबज़ादों ने माता गुजरी जी को भी ये आश्वासन दिया की वो कभी अपने कुल की मर्यादा को झुकने नहीं देंगे।
नवाब के सामने पेशी
अगले ही दिन उन्हें नवाब वजीर खान के पास ले जाया गया। जहाँ पहुँचते ही उन्होंने सबसे पहले शेर की तरह दहाड़ते हुए कहा, “वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरू जी की फतेह।” अब चारों ओर से सैनिको से घिरे होने के बाद माथे पर सिकन न देख लोग भौंचक्के रह गए। वजीर खान उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देता रहा लेकिन वीर पुरुष की वीर संतान की तरह ये वीर सुपुत्र अपने निश्चय पर अटल रहे और इनके झांसे में नहीं आये।
धर्मांतरण का प्रलोभ भी नहीं आया काम
आखिर में जब वजीर खान ने उनसे यह कहा की हम तुम्हे मरना नहीं चाहते बल्कि नवाबों की तरह रखना चाहते हैं लेकिन एक शर्त रखी की तुम्हे अपना धर्म बदलना पड़ेगा। जिसपर दोनों वीरों का जवाब सुन वजीर खान के होश उड़ गए , उन्होंने कहा की “हमें अपना धर्म प्राणों से भी प्यारा है। जिस धर्म के लिए हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की बलि दे दी उसे हम तुम्हारी लालचभरी बातों में आकर छोड़ दें, यह कभी नहीं हो सकता” और धर्मांतरण करवाने से मना कर दिया।
जवाब से तिलमिलाए नवाब ने सुना दी सजा
जिसे सुनकर नवाब वजीर खान और काजी को बहुत गुस्सा आया। काजी ने कहा की- ये दोनों बच्चे मुग़ल शासन के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं इसलिए इन्हे दीवार में ज़िंदा दफ़न कर दिया जाये। फैसला सुनाने के बाद दोनों वीरों को इनकी दादी के पास भेज दिया गया बालकों ने उत्साहपूर्वक दादी को पूरी घटना सुनाई । बालकों की वीरता को देखकर दादी गदगद हो उठी और उन्हें हृदय से लगाकर बोली : “मेरे बच्चों! तुमने अपने पिता की लाज रख ली”
वीरों को किया जल्लादों के हवाले
अगले दिन उन्हें दिल्ली के सरकारी जल्लाद शिशाल बेग और विशाल बेग के पास भेज दिया गया जहाँ इनके चारों ओर दीवारें बनने शुरू हो गयी और धीरे-धीरे जब दीवारें कानों के पास पहुँच गयी तब जोरावर सिंह ने आखिरी बार अपने भाई की ओर देखा और उसकी आंख भर आयी। ऐसे में काजी उन्हें देख काफी खुश हुआ और सोचने लगा की बच्चे डर गए हैं और उसने अच्छा मौका देखकर जोरावर सिंह से कहा : “बच्चों ! अभी भी समय है। यदि तुम मुसलमान बन जाओ तो तुम्हारी सजा माफ कर दी जाएगी”
जोरावर सिंह ने गरजकर कहा : “ये तुम्हारी मूर्खता है मैं मौत से नहीं डर रहा हूँ मेरा भाई मेरे बाद इस संसार में आया परन्तु मुझसे पहले धर्म के लिए शहीद हो रहा है। मुझे बड़ा भाई होने पर भी यह सौभाग्य नहीं मिला, इसलिए मुझे रोना आ रहा है” इन दोनों नन्हे वीर सपूतों की बातें सुन जल्लाद भी दंग रहा गए और अपने आंसू नहीं रोक पाए। देखते ही देखते पूरी दीवार बंद हो गयी और दोनों भाई उसमे समा गए। कुछ वक्त बाद जब दीवार तोड़ी गयी तो दोनों वीर बेहोश पड़े थे और उसके बाद उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी। आज भी हम हर साल 20 दिसंबर से 27 दिसंबर तक शहीदी सप्ताह के रूप में मनाते हैं। बाबा फ़तेह सिंह और जोरावर सिंह की शहीदी को हम वीर बाल दिवस के रूप में हर साल 26 दिसंबर को मानते हैं।