15 Dalit Movements in India in Hindi – उन्नीसवीं सदी के आखिरी और बीसवीं सदी के शुरूआती सालों में ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों में दलितों की बेहतरी और सामाजिक समानता के लिए स्थानीय स्तर पर दलितों के आंदोलन होने लगे थे. जब ईसाई मिशनरी दलितों के बीच काम करने लगे और उपनिवेशी सरकार ने उनमें शिक्षा के प्रसार के लिए विशेष संस्थाएँ खड़ी कीं तो न केवल इन वर्गों में एक छोटा-सा शिक्षित कुलीन समूह पैदा हुआ, बल्कि आम तौर पर इन जन समूहों में एक नई चेतना भी आई. और ये बात शत प्रतिशत सही है कि उपनिवेशी नौकरशाही दलित शिक्षा की घोषित सार्वजनिक नीतियों के क्रियान्वयन में अकसर लड़खड़ाती रही और दलित समूहों को अपने शिक्षा के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिरोधों का सहारा लेना पड़ा.
मिशनरियों ने और नई शिक्षा ने इन समूहों में आत्मसम्मान का भाव पैदा किया. इन समूहों के कुछ मुखर तत्त्वों ने जातिप्रथा की पतित विशेषताओं के विरुद्ध प्रतिरोध की एक विचारधारा तैयार की और इसके साथ पूरे भारत में विभिन्न दलित समूहों के बीच संगठित जातिगत आंदोलनों का जन्म हुआ.
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भारत में दलित आंदोलन की शुरूआत ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई. इन्होने भारतीय समाज में दलितों को एक ऐसा पथ दिखाया था जिसपर आगे चलकर दलित समाज और अन्य समाज के लोगों ने चलकर दलितों के अधिकारों की कई लड़ाई लडी. यूं तो ज्योतिबा ने भारत में दलित आंदोलनों का सूत्रपात किया था लेकिन इसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर ने किया. दलित शब्द सबसे पहले ज्योतिराव फुले द्वारा दलित वर्गों या हिंदू के अस्पृश्य जातियों के लिए इस्तेमाल किया गया था. महात्मा गांधी ने इन्हें हरिजन कह कर संबोधित किया था जिसका मतलब है ‘भगवान् के संतान‘.
15 Dalit Movements in India
सतनामी आन्दोलन (Satnami Movement)
जातिगत संगठन की दिशा में छत्तीसगढ़ का सतनामी आन्दोलन एक अतुलनीय प्रयास था. इस आंदोलन के जन्मदाता अठारहवीं सदी के गुरु घासीदास (1756-1800) बताये जाते हैं, जो चमार जाति से संबंध रखते थे लगभग डेढ़ सौ साल से भी अधिक समय तक चलनेवाला यह सतनामी आंदोलन चमार जाति की सामूहिक प्रगति एवं कुरीतियों पर विजय पाने वाला आन्दोलन था. सतनामी संप्रदाय ने संभवतः कबीरपंथी मत से एक संप्रदाय का आदर्श रूप ग्रहण किया था. कहते हैं कि इसके पहले जगजीवनदास ने उत्तर भारत में इसी प्रकार का मत चलाया था.
गुरु घासीदास ने कई वर्णों में बाँटनेवाली जाति-व्यवस्था का विरोध किया और अपने अनुयायियों को शराब, तंबाकू, माँस, ओट लाल रंग की सब्जियों का प्रयोग निषिद्ध कर दिया. उन्होंने संदेश दिया कि “मानव की एक ही जाति, मानव जाति है और मानव का एक ही धर्म, सत्धर्म है. आज भी उनके उपदेश और धार्मिक अनुष्ठान चमार जाति की कुछ सीधी-साधी धार्मिक परंपराओं में प्रचलित हैं.
महार आन्दोलन (Mahar movement)
महाराष्ट्र के महार जाति के लोग भी, जो कालांतर में डॉ. भीमराव आंबेडकर के आंदोलन का आधार बने, गोपालबाबा वलंगकर और शिवराम जानबा कामले जैसे सुधारकों के नेतृत्व में संगठित होने लगे थे. इनका मानना था कि महारों की स्थिति सुधारने के लिए उन्हें पुलिस और सेना जैसे सरकारी विभागों में भर्ती होना बहुत जरूरी है. वलंगकर ने 1894 में एक याचिका के माध्यम से महाराष्ट्र के महारों को ‘क्षत्रिय’ घोषित करने और सेना में भर्ती करने की माँग की.
15 Dalit Movements in India – शिवराम जानबा कामले ने महारों को जागरूक और संगठित करने के लिए 1904 में सोमवंशीय हित- चिंतक मित्र समाज’ नामक संस्था की स्थापना की. महारों की स्थिति सुधारने के लिए कामले ने भी महारों को पुलिस और सेना में भर्ती किये जाने की माँग की. अंततः वलंगकर और कामले की मेहनत रंग लाई और 6 फरवरी 1917 से ब्रिटिश सेना में महारों की भर्ती होने लगी.
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नामशूद्र आन्दोलन (Namasudra Movement)
उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में बंगाल के ‘चंडाल’ जाति में पैदा हुए चाँदगुरु (1850-1930) ने विद्यालय खोलकर अछूतों को शिक्षित किया. 1899 में बंगाल में जाति-निर्धारण सभा की स्थापना की गई और चंडालों को ‘नाम शूद्र’ नाम दिया गया.
नाम शूद्र गरीब अछूत किसान थे जो दूरस्थ अंग्रेज आका की अपेक्षा अपना शोषण करने वाले उच्चवर्गीय भद्रलोक को ही अपना शत्रु समझते थे.
1901 के पश्चात् पढ़े-लिखें लोगों के एक छोटे-से समूह के आह्वान पर एवं कुछ मिशनरियों के प्रोत्साहन से नाम शूद्रों की जातिगत समितियाँ गठित की जाने लगीं और ‘ नाम शूद्र’, ‘पताका’ और ‘नाम शूद्र हितैषी’ जैसी पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगी थी.
नाडार आंदोलन (Nadar Movement)
दक्षिणी तमिलनाडु में ‘शनार’ समाज के लोगों को अछूत माना जाता था. ये वो लोग होते थे जो ताड़ी निकालने का काम करते थे. उन्नीसवीं सदी अंतिम दौर में रामनाड जिले के कस्बों में इस जाति के समृद्ध व्यापारियों के एक समूह का उदय हुआ, जिसने शैक्षिक एवं समाज कल्याण की गतिविधियाँ चलाने के लिए धन एकत्रित किया और अपने-आपको नाडार (क्षत्रिय) घोषित कर ऊँची जाति के रीति-रिवाजों और आचार-व्यवहार को अपना लिया. इस समूह ने 1910 में ‘नाडार महाजन संगम’ की स्थापना की.
लेकिन इस संस्कृतिकरण से तिरुनेलवेली के नीची जाति के गछवाहे प्रभावित नहीं हुए और अभी तक उन्हें उनके पुराने जाति नाम शनार द्वारा ही संबोधित किया जाता रहा जबकि रामनाड जिले में रहने वाले उनके भाई-बंधुओं ने ‘नाडार’ कहलाने का अधिकार प्राप्त कर लिया था.
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नायर आन्दोलन (Nair Movement)
इस आन्दोलन की शुरुआत सी वी रमण पिल्लई, के राम कृष्णा पिल्लई, और एम पद्मनाभन ने शुरू किया था इस आन्दोलन का प्रमुख कारण था ब्रह्मंवादियों के प्रभुत्व को कम करना जिससे निचले समाज के लोग एक सम्मान की जिन्दगी जी सकें. इसी आन्दोलन के परिणाम स्वरुप मलयाली स्मारक 1891 में रमन पिल्लई द्वारा निर्माण किया गया था और 1914 में पद्मनाभ पिल्लै ने नायर सर्विस सोसाइटी की स्थापना की थी.
इझवा जागरण आंदोलन (Izhva Jagran Movement)
15 Dalit Movements in India – मलाबार, कोचीन और ट्रावनकोर में इझ़वा या इलवान (इलवाज) एक पारंपरिक अछूत जाति थे जो नारियल की खेती करते थे. नारियल उत्पादों के बाजार के विस्तार के साथ इस जाति में एक अपेक्षाकृत समृद्ध वर्ग का उदय हुआ. इझवा जागरण के प्रमुख नेता श्री नारायण गुरु (1854-1928) थे. बीसवीं सदी में केरल के इझवा लोग श्री नारायण गुरु ( नानु असन) से प्रेरित होकर ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध संघर्ष करने लगे थे. वे मंदिरों में प्रवेश करने और अपने कुछेक रिवाजों के ‘संस्कृतीकरण’ की माँग कर रहे थे. श्री नारायण गुरु का तत्त्वज्ञान था ‘मनुष्य के लिए एक जाति, एक धर्म तथा एक ईश्वर’ . इझवा जाति के उत्थान के लिए श्री नारायण गुरु ने 1902 में प्रथम इझवा स्नातक डॉ. पल्पू और महान् मलयाली कवि एन. कुमारन आशान के साथ श्री नारायण धर्म परिपालन योगम् (एस.एन.डी.पी.वाई.) की स्थापना की.
इस संगठन के दो प्रमुख उद्देश्य थे एक तो अस्पृश्यता को समाप्त करना और दूसरे पूजा, विवाह आदि को सरल बनाना . नारायण गुरु ने चंगाटाम कुमारथ कृष्णन जैसे लोगों के सहयोग से अवर्णों के लिए आरविपुरम् जैसे कई मंदिरों का निर्माण करवाया और दैत्य-पूजा सहित विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा को बंद करवा दिया. नारायण गुरु की सलाह पर ही गांधीजी ने अपने अखबार ‘नवजीवन’ का नाम बदलकर ‘हरिजन’ किया था और दलित जातियों को ‘हरिजन’ नाम दिया था.
आदि धर्म आन्दोलन (Adi Dharma Movement)
दक्षिण भारत की तरह बीसवीं सदी के तीसरे दशक में विभाजनपूर्व के पंजाब की निचली और अछूत जातियों में आदि धर्म आंदोलन अच्छी तरह फैल चुका था. इस आंदोलन में पंजाब की दो बड़ी अछूत जातियाँ – चमार (चर्मकार ) और चूहड़ा (सफाई कर्मचारी) शामिल थीं. आदि धर्म आंदोलन के नेता मंगूराम ने दक्षिण के आदि आंदोलनों की तरह प्रचारित किया कि वे ही भारत के आदि मूलनिवासी हैं और उनकी अपनी धार्मिक मान्यताएँ हैं, बाद में ब्राह्मणों ने उन पर हिंदू धर्म बलात् थोप दिया है. आदि धर्म आंदोलन आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों का बहुआयामी आंदोलन था. इस आंदोलन के कार्यकर्त्ता प्रायः बैठकों के बाद एक साथ गाँव या नगर के तालाब पर जाते थे और स्नान करके उच्च हिंदू जातियों द्वारा उस परंपरागत प्रतिबंध को तोड़ते थे कि अछूत वहाँ पानी नहीं भर सकते.
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यह एक ठोस कार्रवाई थी जिससे न केवल अछूत जातियों में परस्पर अलगाव की प्रवृत्ति दूर हुई, बल्कि उनमें जातीय एकता भी बढ़ी. इस प्रकार आदिधर्मियों ने सार्वजनिक कुओं व तालाबों के पानी का उपयोग करने, हिंदू जमींदारों की तरह समान भूमि अधिकार दिये जाने, सार्वजनिक जातीय संपत्तियों का उपयोग करने, ऊँची जातियों के अत्याचारों से बचाया जाने और साथ ही अपने बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएं और अधिकार दिये जाने की माँग की. इन्होंने 1931 की जनगणना में अपने को हिंदू की जगह ‘आदि-धर्मी’ लिखवाया, जिससे पंजाब में अछूतों की संख्या में कमी आ गई. इसके कारण सवर्ण हिंदुओं और अछूतों में कई स्थानों पर संघर्ष भी हुए और कुछ स्थानों पर अछूतों को अपनी पुरानी जाति लिखवाने के लिए दबाव भी डाला गया.
Jatav Movement – 15 Dalit Movements in India
1887 में स्वामी आत्माराम ने ‘ज्ञान समुद्र’ पुस्तक में यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि लोमश रामायण के आधार पर जाटव वंश शिव के गोत्र से संबंधित हैं, इसलिए वे क्षत्रिय हैं, अछूत नहीं. आत्माराम की प्रेरणा से जाटवों में संस्कृतिकरण की भावना का उदय हुआ और जाटव समाज के समृद्ध लोगों ने जाटवों को माँस न खाने और अपने बच्चों को ईसाई स्कूलों, आर्यसमाज की पाठशालाओं और सरकारी विद्यालयों में शिक्षा दिलाने का निश्चय किया. जाटवों ने अपनी पहचान में परिवर्तन लाने के लिए 1917 में ‘जाटव वीर महासभा और फिर ‘अखिल भारतीय जाटव सभा का गठन किया.
1924 में गठित जाटव प्रचारक मंडल ने जाटवों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल दिया और 1926 में पहला जाटव स्नातक हुआ. इसके बाद ‘जाटव परिषद्’ और ‘जाटव जनशिक्षा संस्थान’ विद्यालयों और पुस्तकालयों की स्थापना कर जाटवों में शिक्षा का प्रकाश फैलाया और अपने समाज के शिक्षित युवकों के लिए नौकरियों की माँग की.
जाटव ने जातीय सोपान में अपना दर्जे को ऊँचा उठाने के लिए सरकार से माँग की कि उन्हें चमारों से अलग सूची में रखा जाये और जाटव जाति की गणना अलग की जाये. किंतु 1930 में ‘जाटव युवक परिषद्’ ने आंबेडकर को अछूत समाज का नेता मान लिया. 1944-45 में ‘आगरा परिगणित जाति संघ’ स्थापित हुआ और उसे आंबेडकर के संघ से संबद्ध कर दिया गया, जिससे जाटवों में एक नई धारा तथा नई चेतना का उदय हुआ.
आदि हिन्दू आन्दोलन (Adi Hindu Movement)
अछूतों के समग्र-विकास के लिए फर्रुखाबाद के छिबरामऊ में चमार जाति के स्वामी अछूतानंद (हीरालाल) ने आदि हिंदू आंदोलन चलाया. उन्होंने 1910 में अछूतों में सामाजिक- राजनैतिक चेतना का मंत्र फूँकने के लिए नगरों और गाँवों में संगठन बनाने का प्रयास किया. उन्होंने भेदभावमूलक जातिप्रथा, सामंतवाद, अस्पृश्यता जैसी रूढ़ियों को नष्ट करने का आह्वान किया और केंद्र व राज्य में अछूतों को संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिये जाने की माँग की.
स्वामी का मानना था कि कांग्रेस पर शोषक वर्ग, अस्पृश्यता के परिपोषक सवर्ण हिंदू दलितों को सताने वाले मुस्लिम नवाब और हिंदू जमींदार, राजा-महाराजा तथा ब्राह्मणों का आधिपत्य है; गांधी का अस्पृश्यता– विरोधी आंदोलन भी एक दिखावा है, क्योंकि वे वर्णव्यवस्था के प्रबल पक्षधर हैं.
अछूतानंद ने गाँवों में प्रचलित बेगार और बंधुआ मजदूरी का विरोध किया; समाज सुधार की दिशा में मृत्युभोज, विवाहों और नाच-तमाशों पर होने वाले अपव्यय को रोकने, मद्यपान को बंद करने एवं देवी-देवताओं की पूजा का तिरस्कार करने की अपील की और निम्न जातियों के साथ अंतर्जातीय विवाह की सलाह दी.
कोली- कोटी आंदोलन (Adi-Hindu Movement)
पूरे भारत में गुजरात को छोड़कर कोली एक अछूत जाति है. कोलियों में सुधार के लिए 1910 में लाहौर में ‘भारतवर्षीय कोली सुधार सभा’ स्थापित की गई थी. सुधार सभा ने शिक्षा और समाज-सुधार पर विशेष बल दिया; बाल-विवाह, दहेज, शराब – माँस के सेवन तथा विवाह, जन्म जैसे उत्सवों पर फिजूलखर्ची को रोकने का प्रयास किया. यह संस्कृतिकरण के साथ सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन भी था क्योंकि कोली समाज के लोग अपना दर्जा ऊँचा करने के लिए आर्य, वर्मा, चौधरी आदि उपनाम लगाने लगे थे.
1935 में लखनऊ में ‘कोरी महासभा’ और कानपुर में ‘कोरी महापंचायत’ की स्थापना हुई. इस सभाओं ने कोरी जाति की उपजातियों को संगठित करने का प्रयास किया और सरकार से कोरी जाति को प्रतिनिधित्व देने, शिक्षा में रियायत देने और गाँव के जमींदारों के अत्याचारों को रोकने की माँग की. बंबई के मेयर रहे बर्लीकर ने पूरे भारत में कोली- कोरी संगठनों को मिलाकर एक राष्ट्रीय गैर-राजनीतिक संगठन अखिल भारतीय कोली समाज संगठित किया.
गढ़वाल-कुमायूँ की पहाड़ियों में कोली (शिल्पकार) जाति के बलवंत सिंह ‘आर्य’ ने अस्पृश्यता तथा जातिवाद के विरुद्ध आवाज उठाई. उनके अहिंसात्मक आंदोलन के कारण गांधीजी ने उन्हें ‘पहाड़ का गांधी’ कहा था.
सत्यशोधक आंदोलन (Satya Shodhak movement)
इस आन्दोलन की शुरुआत साल 1873 में में समाज सुधारक ज्योतिराव फुले के नेतृत्व में हुई जिसका उद्देश्य निम्न जातियों, अछूतों और विधवाओं के मुक्ति को लेकर था ये आन्दोलन पूरे देश भर में प्रचंड रूप से सक्रिय था. साथ ही ये आन्दोलन ब्राह्मणवादी के प्रभुत्व के खिलाफ किया गया आंदोलन था.
जस्टिस पार्टी मूवमेंट (Justice Marty Movement)
1916 में डॉ. टी.एम. नायर, पी. टायगाराजा चेट्टी और सी एन मुदलायर के नेतृत्व में शुरू हुआ था. ये आन्दोलन सरकारी सेवाओं, शिक्षा और राजनीति में ब्राह्मणों के प्रभुत्व के खिलाफ हुआ आंदोलन था. दक्षिण भारतीय लिबरेशन फेडरेशन (एसआईएलएफ) का गठन 1916 में किया गया था. समूहों के लिए आरक्षण देने के लिए 1930 के सरकारी आदेश को पारित करने के प्रयास किए गए थे.
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कांग्रेस हरिजन आन्दोलन (Congress Harijan Movement)
ये आन्दोलन निम्न और पिछड़े वर्गों की सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाने के लिए किया गया आंदोलन था. 1932 में अखिल भारतीय अश्पृश्यता विरोधी संगठन की स्थापना की गयी थी. महात्मा गांधी ने 1933 में हरिजन नामक साप्ताहिक की शुरुवात की थी.
Cavartas Movement – 15 Dalit Movements in India
इस आन्दोलन के जरिए ही साल 1897 में जाती निर्धारिणी सभा की नीव रखी गई थी. जिसकी सफलता के बाद साल 1901 में महिषा समिति की नीव भी राखी गयी थी.
स्व-सम्मान आन्दोलन (Swa-Samman Movement)
इस आन्दोलन की शुरुआत दक्षिण द्रविड़ो के महानायक ई.वी रामास्वामी नायक या पेरियार ने 1925 में की थी. यह आंदोलन जाति व्यवस्था और पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण के खिलाफ ब्राह्मणों के खिलाफ किया गया आंदोलन था.
स्वतंत्रता से पहले भारत में जाति और दलित आंदोलन, ब्राह्मणवाद के सामाजिक और राजनैतिक प्रभुत्व के खिलाफ किया गया आंदोलन था. ब्राह्मणवाद के अनुसार, दलित या निम्न जाति के लोग केवल तीन वर्णों जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा के लिए ही जन्म हुआ है, इसलिए उन्हें उच्च शिक्षा लेने का अधिकार नहीं है और नाही उन्हें सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कार्यो में लिप्त होने का कोई अधिकार नहीं है.
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