क्या दलित होना गुनाह है? क्या भारत में दलितों की ज़िंदगी मायने नहीं रखती? क्या दलित होना अपने आप में एक अभिशाप है? हो सकता है कि मेरी बातें पढ़कर कुछ लोग नाराज़ हो जाएँ और कुछ लोग मुझे दोष देने लगें कि देश में दलितों के लिए बहुत से कानून हैं, दलितों को हर जगह आगे बढ़ने के लिए आरक्षण दिया जाता है। आज के समय में दलित होना किस्मत की बात है, लेकिन इससे पहले कि आप मेरी बात को गलत समझें, मैं आपको बता दूँ कि भारत में आज भी दलितों की ज़िंदगी को इतनी अहमियत नहीं दी जाती। इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि साल 2022 में सिर्फ राजस्थान में दलितों पर अत्याचार के 14.7% (7,524) मामले दर्ज किए गए हैं, जो अब बहुत बढ़ गए हैं। परेशान करने वाली बात यह है कि ये मामले सिर्फ़ राजस्थान में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी दर्ज किए गए हैं। दलित महिलाओं के खिलाफ अपराध सबसे ज़्यादा वहीं बढ़ रहे हैं। और सरकार भी इन अपराधों पर लगाम लगाने में नाकाम रही है।
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दलित महिलाओं के खिलाफ बढ़ता जा रहा अपराध
दक्षिण एशियाई देश भारत में सबसे निचली जाति दलितों को “अछूत” भी कहा जाता है। दलित महिलाएँ, जो भारत की महिला आबादी का 16% हिस्सा हैं, अक्सर यौन शोषण का शिकार होती हैं और लिंग- और जाति-आधारित हिंसा का शिकार होने का जोखिम भी उन्हें ज़्यादा होता है। भारत से राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के डेटा के अनुसार हर दिन कम से कम एक दलित महिला का बलात्कार होता है और पिछले दस सालों में बलात्कार की शिकार दलित महिलाओं की संख्या में 44% की वृद्धि हुई है।
ह्यूमन राइट्स वॉच (HRW) के शोध के अनुसार, भारत के भूमिहीन मजदूरों और सफाईकर्मियों का एक बड़ा हिस्सा दलित महिलाएँ हैं, और उनमें से एक बड़ा हिस्सा वेश्यावृत्ति में धकेला जाता है या वेश्यालयों में बेचा जाता है, जिससे उनके साथ दुर्व्यवहार की संभावना अधिक होती है। इसलिए दलित महिलाएँ जमींदारों और कानून लागू करने वाली एजेंसियों के साथ अधिक घुलती-मिलती हैं, जो आसानी से उनका फायदा उठा सकते हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार कर सकते हैं।
दलित कार्यकर्ता ने बतयी सच्चाई
दलित अधिकार कार्यकर्ता थेनमोझी सुंदरराजन दलित महिलाओं की दुर्दशा के बारे में बात करते हुए कहते हैं, “सदियों से, ज़मीन के मालिक जातियों ने दलितों को आतंकित किया है। वे अपनी ज़मीनों पर ऐसे रहते और काम करते हैं जैसे कि यह उनका निजी साम्राज्य हो। जिस तरह नस्लवाद और गुलामी को समझे बिना अमेरिकी इतिहास में यौन हिंसा को समझने का कोई तरीका नहीं है, उसी तरह जाति को समझे बिना भारत में महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा की आवृत्ति और उसके लिए दंड की कमी को समझने का कोई तरीका नहीं है।
सुंदरराजन ने कहा कि पुलिस शिकायतें दर्ज करने में धीमी है, दलित महिलाओं से संबंधित जांच में अक्सर देरी होती है, तथा अधिकारी अक्सर बलात्कार के संदेह को खारिज कर देते हैं।
मीडिया की भूमिका
भारतीय मुख्यधारा का मीडिया अक्सर हाशिए पर पड़े समुदायों की महिलाओं की कहानियों को नज़रअंदाज़ करता है। सामाजिक कार्यकर्ता मनीषा मशाल ने डीडब्ल्यू से बात करते हुए कहा, “जाति आधारित हिंसा काफ़ी आम है, लेकिन इसे उच्च जाति के वर्चस्व वाले न्यूज़रूम में कवरेज नहीं मिलती। दलितों के गांवों को जलाना, पुलिस द्वारा बलात्कार पीड़ितों का पोस्टमार्टम करने से मना करना, स्थानीय प्रशासन और उच्च जाति के लोगों द्वारा दलितों द्वारा दर्ज किए गए मामलों को दबाना आम बात है।”
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