बिहार के भागलपुर में 1980 के दशक में हुआ ‘अंखफोड़वा कांड’ (Bihar Ankhfodwa Case) भारतीय न्याय व्यवस्था और पुलिस व्यवस्था में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है। आज भी इस घटना को याद करके लोगों का दिल पसीज जाता है। अंखफोड़वा कांड भागलपुर पुलिस (Bhagalpur Police) की बर्बरता और मानवाधिकार उल्लंघन का ऐसा उदाहरण था जिसने न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोगों को झकझोर कर रख दिया था। जब अंखफोड़वा कांड के पीड़ितों की तस्वीरें अखबार में छपीं तो सुप्रीम कोर्ट के जजों की आंखों में आंसू आ गए थे। आइए आपको इस मामले के बारे में बताते हैं।
क्या था ‘अंखफोड़वा कांड‘ ? (what is Bihar Ankhfodwa Case)
वर्ष 1979 से 1980 के बीच बिहार के भागलपुर में बढ़ते अपराध को रोकने के लिए कथित अपराधियों को पकड़ने और उन्हें सजा देने के नाम पर पुलिस द्वारा अमानवीय कृत्य किए गए थे। भागलपुर, बिहार की जेलों में कई विचाराधीन कैदी बंद थे। पुलिस के एक वर्ग ने कैदियों को तुरंत सजा देने और तुरंत न्याय दिलाने के लिए एक क्रूर तरीका निकाला। वह था कैदियों की आंखें फोड़कर उनमें तेजाब डालना। भागलपुर की अलग-अलग जेलों में बंद कैदियों की आंखें निकाली जाने लगीं। कथित तौर पर पुलिस ने 31 से अधिक लोगों की आंखों में तेजाब डाला, जिससे वे हमेशा के लिए अंधे हो गए।
कैसे सामने आई घटना
यह मामला तब सामने आया जब एक पत्रकार ने इस अमानवीय घटना को उजागर किया। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अंखफोड़वा कांड को सबसे पहले उजागर करने वालों में शामिल वरिष्ठ पत्रकार अरुण शौरी ने अपनी किताब ‘द कमिश्नर फॉर लॉस्ट कॉजेज’ में इस घटना को सिलसिलेवार तरीके से दर्ज किया है। अपनी किताब में शौरी ने 1980 में सात कैदियों की आंखों में टकवा घोंपकर उन्हें अंधा कर देने की घटना का जिक्र किया है।
उन्होंने किताब मे लिखा कि, ‘एक चैंबर में सभी कैदियों को जबरन लेटने के लिए मजबूर किया गया। इस दौरान एक डॉक्टर आया और उसने पूछा कि क्या वे कुछ देख सकते हैं। कैदियों को लगा कि डॉक्टर उनका इलाज करने के लिए वहां मौजूद हो सकते हैं। “हां,” दो कैदियों ने जवाब दिया, “मैं थोड़ा देख सकता हूं।” इसके बाद डॉक्टर चले गए। कुछ समय बाद, उन कैदियों को एक-एक करके निकाला गया और उनकी आंखों पर फिर से तेजाब डाला गया।’ शौरी के अनुसार, पुलिस ने तेजाब को ‘गंगाजल’ नाम दिया था।
कानूनी कार्रवाई और न्यायिक प्रतिक्रिया
मामला सामने आने पर पूरे देश में हंगामा मच गया। रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद लोगों का गुस्सा पुलिसवालों के खिलाफ फूट पड़ा, लेकिन एक वर्ग उनके समर्थन में भी उतर आया। ‘पुलिस पब्लिक भाई-भाई’ के नारे लगने लगे। वहीं, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए मामले की जांच के आदेश दिए। कई पुलिसकर्मियों और डॉक्टरों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की गई। हालांकि न्यायिक प्रक्रिया काफी लंबी थी, लेकिन कई दोषी अधिकारियों को आखिरकार सजा मिली। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि पीड़ितों को मुआवजा दिया जाए और उनका पुनर्वास किया जाए।
सामाजिक प्रतिक्रिया
इस घटना की मानवाधिकार संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कड़ी निंदा की थी। पूरे देश में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए और इसे पुलिस की बर्बरता का प्रतीक माना गया। इस घटना ने भारत में पुलिस सुधारों की आवश्यकता को भी उजागर किया। इस घटना ने भारत की कानून और न्याय व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े किए और मानवाधिकार उल्लंघन की गंभीरता को उजागर किया।
राजनीतिक प्रतिक्रिया
जब स्थिति बिगड़ने लगी, तो उस समय बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा (Bihar Chief Minister Jagannath Mishra) ने आरोप लगाया कि जनता ही इसके लिए जिम्मेदार है। उन्होंने कई जेल अधीक्षकों को निलंबित करके विवाद को शांत करने का प्रयास किया, लेकिन तब तक अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इस पर रिपोर्ट करना शुरू कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का स्वतः संज्ञान लिया। अंखफोड़वा कांड के पीड़ितों की तस्वीरें देखकर सुप्रीम कोर्ट के जज हैरान रह गए। उन्होंने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि आरोपियों को ऐसी सज़ा दी जाए कि भविष्य में वे ऐसी बात सोचने की हिम्मत भी न करें। उन्होंने सभी पीड़ितों का दिल्ली के एम्स में मूल्यांकन करने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट की नाराज़गी के बाद बिहार सरकार ने 15 पुलिस अधिकारियों को निलंबित कर दिया। लेकिन तीन महीने के भीतर ही उन पर से प्रतिबंध हटा लिया गया।